अजीब आदमी

अब खुद का खुद में दिल नहीं लगता ,
ज़िन्दगी मुश्किल है मगर, मरना भी आसान नहीं लगता।

सब लतीफे पढ़ चुका हूं मैं,
के वो बच्चा अब मुझ में नहीं हंसता।

दिल भर गया है  हर चीज से मेरा,
कुछ भी करने का दिल नहीं करता।

मैं कुछ ना करके भी थक जाता हूं,
कोई मीलों चल कर भी नहीं थकता।

मैं शायद एक अजीब सा  इंसान हूं,
जो सोया रहता है कोई काम नहीं करता।

सच कहूं तो धरती पर बोझ सा बन गया हूं,
मेरे होने या ना होने से किसी को फ़र्क नहीं पड़ता।

मैं हर रोज सपने बुनता हूं बिस्तर पर,
मगर सुबह कुछ करने को मेरा कदम नहीं बड़ता।

मैं सच कहूं तो बहुत कुछ करना चाहता हूं,
मगर क्या करना है मुझे ये मामुल नहीं पड़ता।

मैं दिल का साफ हूं  और सबकी कद्र करता हूं,
हां वो अलग बात है कि मेरी कद्र कोई नहीं करता।

मैं गुनेहगार हूं अपने मां – बाबा का,
मुझे लगता है कि मैं अच्छा बेटा भी नहीं बन सकता।

सच कहूं तो मैं सच में बहुत बुरा हूं,
खुद में खोया रहता हूं अपनों का ख्याल भी नहीं रखता।

मैं सोचने में ही सारा वक़्त निकाल देता हूं,
मैं कोई भी काम वक़्त पर नहीं करता।

मुझको ले कर सबको शिकायते है,
मगर मैं किसी से कोई शिकायत नहीं करता।

वो मुझे नाकारा, काम चोर कुछ भी कह देते है,
मैं अब खुद की इज्जत भी नहीं करता।

ऐसा लगता है कि जैसे मैं अकेला सा पड़ गया,
दुनिया में भीड़ बहुत मगर मुझे कोई प्यार नहीं करता।

***आशीष रसीला***

11 thoughts on “अजीब आदमी

Leave a comment

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.