तुम इस तरह भी ना खुदपर काबू रखो ,
थक गई हो तो मेरे कंधे पर हाथ रखो ।।
आशीष रसीला

तुम इस तरह भी ना खुदपर काबू रखो ,
थक गई हो तो मेरे कंधे पर हाथ रखो ।।
आशीष रसीला
मेरी ख़ामोशी का जवाब उसने भी ख़ामोशी से दिया,
पहली बार किसी को इतनी बेरहमी से लड़ते देखा।
आशीष रसीला
वो खुदा का बनाया इंसान है उसे खुदा ना कह ,
जो हजारों मंदिरों-मस्जिदों में रहे उस खुदा ना कह..
सिर्फ इंसान की इंसानियत उसे इंसान बनाती है ,
इंसानियत नहीं हो जिसमें उसे इंसान ना कह..
हर ग़ज़ल मेरी वारदात है जो हम पर गुजरी ,
मेरे हर शेर को सुनकर उसे अच्छा ना कह..
इस दो दिन की जिंदगी ने होश उड़ा डालें हैं,
अब कुछ और दो दिन जीने को अच्छा ना कह..
बात सिर्फ एक बोसे की होती तो बेहतर होता,
जिस्मानी तिश्नगी में तड़पते दिल को मुहब्बत ना कह..
मैं बहुत रोया अपनी बेवफ़ाई की माफ़ी मांग कर,
तुमने माफ़ ना किया तो खुदको अच्छा ना कह..
इन अंधेरों की पीठ पर उजाले आराम करते हैं ,
शायर हर बात पर अंधेरों को यूं मुज़िर ना कह..
आशीष रसीला
गम अपनों सा खुशियां अपनी होकर भी पराई सी लगी ,
हमें सादा जिंदगी बेहतर, बाकी सब मोह माया सी लगी।
तूफान के बाद एक टूटे हुए हरे दरख़्त ने मुझसे कहा ,
उसका यूं तुफां में गिरना उसे खुदा की एक साजिश लगी।
हर जगह झूठ,खुला कत्लेआम ये दुनिया जहन्नुम लगती है ,
मगर एक बच्चे को हंसता देखा तो दुनियां अच्छी लगी।
यूं तो हमको हमारा दुश्मन ज़रा भी पसंद नहीं, मगर
वो मुझसे बेहतर बनना चाहता है ये बात हमको अच्छी लगी।
अब इससे बड़ा रोज़गार हमको कहां मिल सकता था,
हमारी ज़िदंगी के यहां जिंदगी जीने के लिए नौकरी लगी।
आप हमसे से ना ही पूछिए तो बेहतर होगा साहब ,
हमको तो मौत जीवन साथी ज़िन्दगी तवायफ सी लगी ।।
आशीष रसीला
मेरे ख़्वाब कहते हैं घर से दूर निकल जाने को,
घर की यादें कहती हैं घर वापिस लौट आने को..
मंज़िलें कहती है कुछ कदम और चलता रह,
मुश्किलें कहती हैं रास्ते में ही सिमट जाने को..
आशीष रसीला
हम उसको अपनी मुहब्बत का हिसाब क्या देते,
जवाब खुद ही सवाल पूछे तो हम ज़वाब क्या देते…
एक मासूम बच्चे ने तितली के पंखों को नोच डाला,
अब उसकी नादानी का हम उसको सिला क्या देते…
पहली बार आंखो ने सच को झूठ बोलते देखा,
अब हम अपनी बेगुनाही का सबूत क्या देते….
जिस शख्स की चाहत में हमने दुवाएं मांगी हों,
अब उसकी बेवफाई में हम उसे बद्दुआ क्या देते…
जो कुछ दूर तक अपनी जुबां पर ना चल सके,
ऐसे अपाहिज को हम अपना सहारा क्या देते…
जो समंदर सारी नदियां पी कर भी प्यासा हो,
उसकी प्यास में आंख का एक आंसू क्या देते …
तुफान में जख्मी होकर एक परिंदा जमी पर गिरा,
हम खुद टूटकर बिखरे थे तो हौंसला क्या देते…
कुछ रास्तों के बारे वो हमसे अक्सर पूछते थे,
जिन रास्तों पर गए नहीं तो मशवरा क्या देते …
मौत मेरे घर की दहलीज पर मेरे इंतजार में थी,
अब हम अपनी जान ना देते तो भला क्या देते…
आशीष रसीला