मैं इतना बुरा भी नहीं जितना तुम लोगों को बताती हो,
तुम इतनी अच्छी भी नहीं जितना तुम बन कर दिखाती हो।
खैर छोड़ो, मैं यहां तुम्हारे ऐबों को गिनवाने नहीं आया,
बस कहना चाहता हूं, की तुम मुझे याद बहुत आती हो।।
आशीष रसीला

मैं इतना बुरा भी नहीं जितना तुम लोगों को बताती हो,
तुम इतनी अच्छी भी नहीं जितना तुम बन कर दिखाती हो।
खैर छोड़ो, मैं यहां तुम्हारे ऐबों को गिनवाने नहीं आया,
बस कहना चाहता हूं, की तुम मुझे याद बहुत आती हो।।
आशीष रसीला
मेरी माँ को पिता के पसीने की खुशबू अच्छी लगती है,
गांव में बच्चों को दादा-दादी की कहानी अच्छी लगती है।
शहर की चौड़ी सड़कों पर लोग रोंध दिए जाते है,
मुझे मेरे गाँव की छोटी कच्ची सड़कें अच्छी लगती है।
मेरे गांव के पागल लोग पिपल की पूजा करते हैं ,
हमें ऐसे अंधविश्वास की समझदारी अच्छी लगती है।
शहर के फुटपातों पर गरीब लोगों का बेसरा है ।
मुझे गाँव में कुछ गज जमीं की जमीदारी अच्छी लगती है।
आपको आपका मोटर कार मुबारक हो साहिब ,
हमको तो बैलगाड़ी की सवारी अच्छी लगती है।
जिस पढ़ाई से गांव में शहर की नीव रख दी जाए ,
ऐसी पढ़ाई से अनपढ़ रहने को बीमारी अच्छी लगती है।।
आशीष रसीला
कुदरत के लहजे में कुछ उबाल आया है,
बहुत दिनों बाद हवा में उझाल आया है ।
हवा पहाड़ से कुछ कंकर गिरा कर बोली ,
जरा ध्यान से मेरी हथेली पर बाल आया है।
इन्तहा हो गई ऐ-खुदा तुझको आना चाहिए ,
तेरे चाहने वालों की ज़िंदगी पर सवाल आया है।
मेरी दोनों चप्पल अमरूद के पेड़ पर लटकी हैं,
पहली बार पेड़ पर चढ़ने का ख्याल आया है।
काले बादल भी आए मगर बारिश नहीं हुई,
हवा छोटा झोंका बादलों को खंगाल आया है।
मेरे गांव की लड़कियां सज सवर कर बैठी हैं,
मुमकिन है शहर से कोई जमाल आया है।
वो मुझे तबाह करने की ताक में बैठा है,
ये इश्क एक अजीब सा भ्रम पाल आया है ।
मुझे एक लम्हा गुजरने पर नींद नहीं आती,
लोग खुश होते हैं की नया साल आया है ।।
आशीष रसीला
मैं अक्सर देखता हूं
सड़क के किनारे
पीपल के पेड़ पर
एक छोटा हरा पत्ता
पेड़ की टहनी से
उंगली झुड़ाने की ज़िद करता है
हवा उसके सपनो को हवा
देकर उसको परिंदों सा
उड़ने का ख्वाब देती है
मां जानती है उससे उंगली
छुटने पर वो जमीं पर
गिर जाएगा
उसका मुलायम बदन फिर
उसके सामने ही
मुसाफिरों के पांव के तले कुचला जायेगा
मां जमीं पर पड़ी
सूखे पत्तों की लाशें दिखा
उसे डराती है मगर
वो बहुत ज़िद्दी है
वो अब भी हवा के आने पर
ज़िद करता है
उसे लगता है हवा नहीं
वो खुद उड़ता है
अजीब सा वहम पाले है
क्या हम इंसान भी ऐसें हैं ?
***आशीष रसीला***
आईना देखो जब तुम्हें कोई देखता ना हो
खुद से बातें करो मगर कोई देखता ना हो….
खुलकर हंसो अपने दुश्मनों के सामने
खुलकर रो दो जब दुश्मन देखता ना हो….
गुनाह करो गुनाह करने में कोई बुराई नहीं
जरूरी है गुनाह करते वक्त खुदा देखता ना हो…
बात एक तरफा प्यार की है तो बस इतना कहूंगा
उसे चुपके से देखो जब वो तुम्हे देखता ना हो….
वो दिल में रह सकतें हैं बस शर्त इतनी
जाना तब होगा जब दिल देखता ना हो….
तुम खुद को जानना चाहते हो तो मेरा मशवरा है
खुद को गौर से महसूस करो जब कोई देखता ना हो….
***आशीष रसीला***
आसमान का सपना देखने वालों ,
इस जमीं का ज़िम्मा आपका है ।
बुझाकर दिया, अंधेरा देखा,
अब रोशनी का जिम्मा, आपका है ।
दर्द पर लतीफे पढ़ने वालों ,
अगला पन्ना, आपका है।
बारिश के तूफान में ओले पड़े,
खेत खलिहान, किसान का है ।
बची धान सरकारें खाएं,
सड़क पर किसान, आपका है ।
शहर की आग के पीछे तेज हवा,
अब अगला गांव, आपका है।
मैं बिखरा, तो वो टूटा ,
आगे उनसे रिश्ता, आपका है ।
पेड़ कटा, हवा जहरली हुई,
ये कुदरत का तोहफा, आपका है
कुछ चले गए, कुछ जाने वाले हैं,
अब सिर्फ इतंजार, आपका है ।।
*** आशीष रसीला***
खुद को किसी से बेहतर कहना मेरा मक़सद नहीं,
किसी का दिल दुखा कर खुश रहना मेरा मक़सद नहीं।
मैं जो भी था, मैं जो भी हूं , मैं जो भी होने वाला हूं ,
अपने हालों पर किसी को मुजरिम बनाना मेरा मक़सद नहीं।
मुझ से अनजाने में किसी का दिल भी टूट सकता है ,
मगर मैं पलट कर माफ़ी ना मांगू, मेरा मक़सद नहीं ।
कुछ टूटे हैं मुझ से रिश्ते, कुछ लोगों ने मुझ से तोड़े हैं,
मगर रिश्तों के टूटने से मैं ख़ुद टूट जाऊं, मेरा मक़सद नहीं ।
मैं किसी के ऐब गिनाता फिरूं ये मेरी ज़हनियत नहीं है ,
अपने दुश्मन को भी बुरा कहना, मेरा मक़सद नहीं ।
झुक जाए सर मेरे एहतराम में, ऐसी शोहरत का मोहताज नही,
किसी का सर झुका कर उसे गले लगाना, मेरा मक़सद नहीं।
किसी के सपनों पर मैं अपने सपनों की नीव नही रख सकता,
किसी को हरा कर जितने की मुराद रखना, मेरा मक़सद नहीं।
ये दुनियां एक दुनियां है मेरी दुनियां तो कहीं और है ,
ख्वाबों की दुनियां में हकीकत को भूल जाना, मेरा मक़सद नहीं।
मेरा गलत होना या सही होना तुम्हारे नजरिए से है,
किसी के कहने पर मैं बदल जाऊं, मेरा मक़सद नहीं ।
खुदा है तो खुदा होगा, मुझे उसके होने पर ऐतराज नहीं,
खुदा के नाम पर मैं मिट जाऊं ऐसा सोचना, मेरा मक़सद नहीं ।
मुनासिफ है की कल बुलंदियों का मैं आसमान चुमूं ,
मगर मैं अपनी ओकाद भूल जाऊं, मेरा मक़सद नहीं ।
इस दुनियां में रहने वाले हम सभी किरायेदार हैं ,
मैं जैसे आया था, वैसे ही लौट जाऊं, मेरा मक़सद नहीं ।
मैंने बहुत सोच समझ कर ये अपनी बातें रखी हैं ,
लोग अपने दिल पर ना लगा बैठें, मेरा मक़सद नहीं ।।
***आशीष रसीला***