
वो मुस्लिम मैं हिन्दू

सब किरदारों से हटकर है माँ
कुछ-कुछ नानी जैसी है माँ
ना कोई फरिश्ता ना कोई खुदा
मुझको माँ जैसी दिखती है माँ
कभी गुस्से में तपती दोपहर जैसी
कभी बरगद की ठंडी छाँव है माँ
छोटी-छोटी नोक्छोक में उलझी
बातों की काफी सुलझी है माँ
कभी शहद सी मीठी लोरी गाए
कभी नीम के पत्तों की औषधि है माँ
माँ चूल्हा-चौका चिमटा-फुकनी
बाजरे की रोटी सरसों का साग है माँ
बंधी होती है माँ के पल्लू से चाबी
घर की पहली लक्ष्मी है माँ
यूं तो वो अक्सर मुस्कुराती रहती है
अब्बा से लड़कर बहुत रोती है माँ
कभी यहां से वहां, वहां से यहां
चिंता में सोती कच्ची नींद है माँ
इस दुनिया में चाहे कितने भी खुदा हो
इस दुनिया का इकलौता वजूद है माँ
हर गली हर गांव हर शहर में है माँ
हर लड़की का पहला अहसास है माँ…
***Ashish Rasila***